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New criminal laws : unnecessary burden on legal community.

नये अपराधिक कानून कानूनी बिरादरी पर गैर-जरूरी बोझ

 

सर्वप्रथम तो मेरी राय में प्रचलित तीनों अपराधिक कानूनों को पूरी तरह से बदलने की आवश्यकता नहीं थी, समय, काल व परिस्थितियों के अनुसार मौजूदा कानूनों में संशोधन किये जाते रहे हैं, आगे भी किये जायेंगे, यदि कुछ नये प्रावधानों की आवश्यकता थी तो संशोधन करके उन प्रावधानों को जोड़ा जा सकता था, अथवा किसी अनावश्यक प्रावधान को हटाया भी जा सकता था, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि तीनों कानूनांे को पूरी तरह से बदलने से विधि व न्याय क्षेत्र से जुड़े हुए प्रत्येक व्यक्ति, विधि के प्रोफेसर, विद्यार्थी, विधि व्यवसायी, न्यायिक अधिकारीगण, पुलिस प्रशासन से जुड़े हुए लोग आदि सभी को अनावश्यक रूप से नये कानूनों की धाराओं को पढना व समझना होगा। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि कितने किताबों के पब्लीशर्स की पुरानी किताबें बिकना बंद हो जायेंगी। न्यायिक सेवाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों के नोट्स, लाॅ लाइब्रेरीज़, लाॅ जर्नल्स, बेकार हो जायेंगे। हालांकि अभी यह भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है, कि न्यायिक परीक्षाओं का सिलेबस क्या होगा।

                भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को बदलने के लिए लाए गए तीन विधेयक मूल रूप से पुराने कानूनों के प्रावधानों की ही प्रति है पर इन नए कानूनों में कुछ विशेष बदलाव है जो इन्हें ब्रिटिश कानूनों से भी ज्यादा खतरनाक बनाते हैं.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि भारत दुनिया का एक महान लोकतंत्र है, जिन परिस्थितियों में, भारतीय संसद बीते दिसंबर महीने में भारतीय संसद द्वाराशीतकालीन सत्र में 140 से ज्यादा सांसदों के निलंबित होने के बावजूद भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को बदलने के लिए तीन विधेयक भारतीय न्याय संहिताए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य बिल पारित किए गए मैं समझता हूं कि जिस स्तर पर इन कानूनों को बनाने के लिये संसद में सत्ता पक्ष व विपक्ष के मध्य चर्चा होनी चाहिये वह नहीं हुई है।

अपराधिक न्यायिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली में अभियुक्त व उसकी आजादी से सम्बंधित 3 महत्वपूर्ण पहलू हैं-

1.     गिरफ्तारी

2.      हिरासत

3.      जमानत

उक्त तीनों पहलुओं पर विश्लेषण करना जरूरी है।

                माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा डी0के0 बसू बनाम पश्चिम बंगाल के केस में अभियुक्त की गिरफ्तारी के सम्बंध में पुलिस द्वारा शक्तियों के दुरूपयोग को रोकने के लिये एवं प्रेम शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन के केस में हथकड़ी के प्रयोग से संबंधित  महत्वपूर्ण दिशा निर्देश जारी किये गये थे। जिनको कानून में पूरी तरह से सम्मिलित करने की मांग काफी समय से होती रही है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 43(3) में न सिर्फ उक्त दिशा-निर्देशों को नजर अंदाज किया गया है, बल्कि हथकड़ी के प्रयोग को बढाने का भी प्रावधान किया गया है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के सबसे बड़े बदलावों में से एक पुलिस हिरासत से संबंधित है जिसमें धारा 187(2) और 187(3) में यह प्रावधान किया गया है  कि पुलिस हिरासत 60 या 90 दिन तक बढ़ाई जा सकती है जो पहले शुरुआत के 15 दिन थी. इसके अलावा न्यायिक हिरासत के बाद पुनः पुलिस हिरासत का भी प्रावधान है जो पुलिस जांच के लिए गिरफ्तारी के 40 या 60 दिन बाद तक ली जा सकती.

इसका जमानत पर भी प्रभाव पढ़ सकता क्योंकि पुलिस जांच के नाम पर पुनः हिरासत की मांग कर सकती है. इस संहिता में ट्रायल के वक्त आगे की जांच का भी प्रावधान है और उस वक्त गिरफ्तारी या हिरासत से सबंधित क्या नियम होंगे, इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी केस में स्पष्ट किया है कि पुलिस हिरासत शुरुआती 15 दिन के बाद नहीं दी जा सकती तो मौजूदा प्रावधान उसके खिलाफ काम करता है. इस विषय पर सरकार ने स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों को भी नजरअंदाज किया गया. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 172 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी पुलिस अधिकारी द्वारा दिये गये किसी भी निर्देश का पालन करने से इंकार करने, विरोध करने, अनदेखा करने या अवहेलना करने को अपराध घोषित किया गया है, जो कि नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त किये गये मौलिक अधिकारों के विरूद्ध है, इससे पुलिसराज को बढावा मिलेगा। बी0एन0एस0 की धारा 173 मेें 3 वर्ष या 3 वर्ष से ज्यादा एवं 7 वर्ष से कम के संज्ञेय अपराधों में प्राथमिक जाॅंच की व्यवस्था दी गई है। जिससे एफ0आई0आर0 दर्ज करना पुलिस की मर्जी पर निर्भर हो गया है। यह प्रावधान संज्ञेय अपराधों में एफ0आई0आर0 दर्ज करने के सम्बंध में मा0 सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ललिता कुमारी बनाम उ0प्र0 राज्य के मामले में प्रतिपादित किये गये सिद्वांतों के विपरीत हैं।

जहाॅं एक तरफ मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राजद्रोह की धारा 124 । दं0प्र0सं0 के क्रियान्वयन को स्थगित कर दिया गया, वहीं दूसरी तरफ उससे भी ज्यादा खतरनाक धारा 113 भारतीय न्याय संहिता में जोड़ी गई है, जो कहीं न कहीं वैध, विधि सम्मत, अहिंसक लोकतांत्रिक भाषण एवं कार्यवाही को भी आतंकवाद के रूप में परिभाषित करता है। यह राजद्रोह के अपराध को अधिक क्रूर अवतार में विस्तारित करना कहा जा सकता है। भारतीय न्यायसंहिता की धारा 152 जिसे देशद्रोह के सम्बंध में जोड़ा गया है। यह धारा, धारा 124 । भा0दं0सं0 की ही हूबहू प्रति है, बस राजद्रोह की जगह इसे देशद्रोह के रूप में देखा जायेगा। मा0 सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के विपरीत है।

अपराधों के सजा में असंगतियाॅं

भारतीय न्याय संहिता में अलग अलग गंभीरता वाले अपराधों के लिये समान सजायें हैं, और समान अपराधों के लिये अलग अलग सजायें हैं। उदाहरण के लिये शपथ लेकर झूठा बयान देना, धारा 216 बी0एन0एस0 में 03 वर्ष की कैद है और महिला के विरूद्ध क्रूरता का अपराध करने की धारा 85 बी0एन0एस0 में भी यही सजा है। मानहानि धारा 356/2 बीएनएस, 2 वर्ष तक की सजा एवं बच्चे के जन्म को छिपाने के लिये उसके मृत शरीर का चुपके से अंतिम संस्कार धारा 94 बी0एन0एस0 में भी 02 वर्ष की सजा है। इसी तरह अगर नाबालिग बच्चे को वेश्यावृत्ति के लिये बेंचा तो धारा 98 बी0एन0एस0 10 साल की सजा होगी, यदि वेश्यावृत्ति के लिये नाबालिग बच्चे को खरीदा तो धारा 99 बी0एन0एस0 में 14 साल तक की सजा हो सकती है। इस तरह से इन प्रावधानों में दी गई सजा में असंगतियाॅं हैं।

                कम गंभीर अपराधों की तुलना मंे, अधिक गंभीर अपराधों में सजा कम है, जैसे धोखे से विवाह करने धारा 83 बीएनएस पर अधिकतम सजा 7 की है, लेकिन जबरन अवैध श्रम कराने में धारा 146 बी0एन0एस0 मंे 1 साल तक ही जेल मंे रहना होगा और क्रूरता धारा 85 बीएनएस तथा यौन उत्पीड़न धारा 75 बीएनएस मेें 3 साल तक की सजा है। इस तरह से उपरोक्त समस्त प्रावधानों में सजा में असंगति है।

इसी तरह से भारतीय न्याय संहिता में जुर्माना लगाने में भी किसी तरह का कोई तर्क नहीं है। एसिड अटैक, धारा 124 बी0एन0एस0 में सजा व जुर्माना दोनों का प्रावधान है, लेकिन दहेज हत्या धारा 80 बीएनएस में जुर्माने का प्रावधान नहीं है। विदित हो कि कुछ जुर्मानों का उद्देश्य पुनर्वास है, कुछ का नहीं है। बी0एन0एस0 में अप्राकृतिक संभोग के अपराध को पूरी तरह से गायब कर दिया गया है, जो कि जबरन समलैंगिक मैथुन को अपराध बनाता है।

सुधार व पुर्नवास का अभाव

                भारतीय न्याय संहिता में न्याय शब्द पर बल देने, अधिक पारदर्शिता की बात कहने के बावजूद कानून में सुधार, पुर्नवास व बहाली के विचारों के लिये कोई जगह नहीं है।

दो समानांतर न्याय प्रणालियाॅं बनाना

भारत के न्यायालयों मंे जिस तरह से मुकदमों का अंबार लगा हुआ है, उससे यह कहा जा सकता है कि वर्तमान प्रक्रियात्मक कानून अगले 20 साल या उससे अधिक समय तक लागू रहेंगे, जबतक कि नये कानून के तहत मामले दर्ज न हो जायें, और मजिस्ट्रेट की न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक अपने अंजाम तक न पहुंचने लगें, इन कानूनों के लागू होने के बाद से अदालतों के पास लंबित मामलों को निपटाने के साथ नये मामलों को निपटाने का भी काम होगा, जिन पर नये प्रावधान लागू होंगे, यानी अगले 2-3 दशकों के लिये 2 समानांतर अपराधिक न्याय प्रणालियाॅं लागू रहेंगी। सरकार द्वारा लंबित मामलों पर नये अपराधिक कानूनों के प्रभाव पर कोई भी अध्ययन नहीं किया गया।

नये अपराधिक कानूनों में आज के आधुनिक युग में इलेक्ट्रानिक गैजेट्स को सीज़ करने के पुलिस को न सिर्फ असीमित अधिकार दिये गये है, बल्कि मोबाइल फोन, लैपटाप, सिंम आदि को लोगों के खिलाफ सबूत बनाकर जेलों में सड़ाने का प्रावधान भी दिया गया है।

अपराधिक न्यायशास्त्र का सिद्धांत यह है कि चाहे 99 अपराधी छूट जायें, परन्तु 1 निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिये। भारत के कानूनों की बुनियाद भी यही सिद्धांत रहा है, परन्तु नये अपराधिक कानूनों के लागू होते ही, उक्त सिद्धांत के उलट काम करेंगे। इसका उद्देश्य होगा कि 1 अपराधी के चक्कर में 99 बेगुनाहों को प्रताड़ित किया जायेगा।

                इस तरह से तीनों नये अपराधिक कानून अनावश्यक व अव्यवहारिक हैं, नागरिकों की व्यक्तिगत आजादी तथा जमानत व हिरासत के बुनियादी सिद्वांतों एवं नियमों के विपरीत हैं। कई प्रावधान लोकतंत्र की भावना के विपरीत हैं, इससे समूचा न्याय प्रशासन, विधि व्यवसायी, विधि विद्यार्थी तथा पुलिस प्रशासन सम्पूर्ण लोग जबरदस्त तरह से प्रभावित होंगे। इन कानूनों के लागू रहने से दूरगामी परिणाम नकारात्मक होंगे।

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